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Thursday, 22 May 2014

  "  बैलाडोना लिली"

ख़ूबसूरत जलती अंगारों सी लाल पंखुड़ियाँ , छहों एक बराबर ,बीच में जैसे बादलों ने छेड़ दिया हो अपने श्वेत रंग से ,पूरी डाली एक तरफ़ को झुकी हुई फूल के बोझ से ,पत्ते भी जैसे तनें के साथ मिलकर उस लिली का खिलना सहन नहीं कर पा रहें हों ।पर मैनें जिया वो पूरा एक दिन उस लिली के साथ ।उसे कली बनते, खिलते और मुर्झा कर गिरते देखा । मैंने थामा उस थकी हुई लिली को और अपने मानस पटल पर उसका हर चित्र अंकित कर लिया।
      गाँव की वो खिलती कली भी , जैसे लोगों के दिए गए बड़े कपड़ों में न समाती थी। बिना साबुन घिसे भी बादलों के श्वेत वर्ण को लज्जित करती उसके तन की चमकती आभा । नाम भी ख़ूब था उसका ,धन की आशा मे पैदा हुई "दौलत" ।सब उसे दौलती बुलाते पर रिश्ते मे वो मेरी बुआ लगती सो मैं उसे दौलत फुआ बुलाती । उम्र मे वो शायद मुझसे दो साल ही बड़ी थी पर हर चीज़ पता थी उन्हे और मैं ,उनकी नज़र में शहर की बुद्धू लड़की थी जिसे कुछ नहीं आता था ।
सो वो मेरा हाथ पकड़कर हर जगह ले जाती मुझे , उस कुँए के पास ,जहाँ कई घुड़सवारों ने अपने घोड़े समेत कुँए में छलाँग लगा दी थी वो उसे घोड़हवा इनरा कहती थी । कभी मुझे मेरे ही बाबा के खेत में ले जातीं थी साग खोटने के बहाने ,और मुझसे ही मकई और गन्ने की चोरी करवाती , मेरे ही खेत से । बाबा के शोर मचाने पर मुझे देवी स्थान के पीछे से भगा ले जाती थीं । मेरी सभी नई फ्राकों में कभी साग , कभी खीरा ,कभी मकई का बाल देख मेरी माँ बहुत ग़ुस्सा करती थी ।
       पर ,मैं तो जैसे दौलत फुआ के संग उड़ती जाती । एक बार उन्होंने गाँव के बच्चों के साथ मुझे खेलने के लिए बुलाया ।जगह तय हुई ,मेरा ही आम का बगईचा । खेल का नाम था डंडा छू ।
इस खेल में दो टीम थी । चोर टीम नीचे रहेगी और दूसरी टीम आम के पेड़ों पर । डंडा नीचे रखा रहेगा ,चोर टीम की निगरानी में ।हमें पेड़ से नीचे उतरना है और बिना पकड़े गए डंडे को सुरक्षित वापस पेड़ पर ले जाना है ।मुझे पेड़पर चढ़ना तो आता नहीं था ,सो सबसे नीची डाल पर दौलत फुआ और बाक़ी बच्चों ने मुझे किसी तरह चढाकर बिठा दिया । मुझे चुपचाप देखने को कहा गया । उधर दौलत फुआ चुपके से उन पेड़ों से कच्चे आम के टिकोरे तोड़ कर अपनी बड़ी सी फ्राक के कोनों में भरकर बान्धे जा रही थीं । अचानक मेरे बढ़के बाबा जो कि मेरे परदादा थे उनके खड़ाऊँ की आवाज़ गली में से सुनाई दी । बस लो ! सारे बच्चे मुझे पेड़ पर बैठे ही छोड़कर भाग गए । मैं डरी सी चिल्लाई -"दौलत फुआ बचाओ ! " वो तेज़ी से दौड़कर वापस आई और बोली कूद जल्दी ! मैं कूद गई , पर ये क्या ? मैं न नीचे ही आ पा रही थी ,न ऊपर ही थी । मेरी फ्राक का कोना ऊपर डाल में ही अटक गया था और मैं पेड़ से नीचे उलटा लटकी हुई ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी  ।दौलत फुआ ने घबराकर मेरा हाथ पकड़ मुझे खींचना चाहा तो मेरी फ्राक का नीचे का घेर उधड़ना शुरू हो गया ,और हर उधडते घेरे के साथ मैं चिल्लाती हुई थोड़ा और नीचे खिसक जाती । उधर सारे बच्चे गली में खड़े होकर मुझे उलटा लटका देख ताली बजा-बजाकर हँस रहे थे । किसी ने बड़े बाबा को भी ख़बर कर दी और जब तक वो पहुँचते तब तक मेरा पूरा फ्राक का घाघरा उधड़ चुका था और मैं जैसे ही नीचे गिरी , दौलत फुआ ने झट घाघरा लपेट कर गाँठ लगा दी और मुझे पकड़कर अपने घर लेकर भाग गईं ।
     उधर गाँव के बच्चों ने उनके घर में भी सबसे पूरा क़िस्सा कह सुनाया था । ख़ैर मैं थी , सो सबने मुझसे प्यार से बात की और दौलत फुआ ने मेरी पूरी फ्राक का घेरा सुई - धागे से अच्छी तरह सिलकर ,पहनाकर तैयार कर दिया । जैसे ही मैं उनके घर से निकली , बड़ी ज़ोर -ज़ोर से उनके रोने की आवाज़ आने लगी । मैंने उनके घर की टूटी ड्योढ़ी से झाँक कर देखा,तो सहम सी गई ।उनके बाऊजी यानी मेरे छोटे बाबा और उनका भाई दोनों ही उन्हे बुरी तरीक़े से आँगन में घसीट -घसीट कर पीटे जा रहे थे । मैं ज़ोर से रोती हुई घर आई तो मम्मी ने मुझे चुप कराया और बोला कि कभी दौलत फुआ के साथ नहीं खेलना । मैंने कई बार पूछा कि क्यों ?पर हर बार जवाब मिला वो गन्दी लड़की हैं । मेरे मन में सवाल हज़ार थे ,और पहरे पर भी  कई लोग  बैठे थे ।
   ख़ैर ,दूसरे दिन बाबा ने मेरे उदास होने पर आम के बग़ीचे में झूला डलवाया , मचान बनवाया और ढेर सारी साहित्य की और रूसी लेखक अन्तोन चिकोव की किताबें दी पढ़ने के लिए । मचान पर ही मेरा खाना आया , पर मन नहीं लग रहा था सो इधर-उधर देखने लगी । गली में ही उदास बैठी दौलत फुआ नज़र आई , मैनें झट पेड़ से ही उनके पास सूखी डंडियाँ तोड़कर फेंकनी शुरू की । पर वो तो देख ही नहीं रही थीं ,फिर मैंने उन्हें खाने का डब्बा हिलाकर आवाज़  की तो वो झट से छुपती हुई आकर मचान पर पीछे से चढ़ गई । मैंने खाने का डब्बा आगे किया ।पहले तो वो संकुचाई , पर जल्द ही भूखे जानवर की तरह खाने पर टूट पड़ी । देसी घी में तैरती अम्माजी के हाथों की लिट्टी , खस्ता पियाव ,दहियौरी  और ठेंकुआँ सब ख़त्म कर दिया । मैनें दौलत फुआ का हाथ पकड़ा ताकी वो भाग न जाएँ , पर वो तो बुखार से तप रही थीं । उनका हाथ पकड़ मैनें पूछा क्यूँ मारा आपको ? तो वो हँसते हुए बोलीं -" हमरा त रोज़े मार पड़ेला , काल्ह उ खेतन मे मुँहझौंसा पकड़ लेलक , ओकर मुँह नोच लेली , इहेसे हमर बाऊजी अऊर भईया से पिटवैले कहके, कि हम ओकर पास गएले रहली , हमरा बदनाम करेला उ कोयला के खदान । " फिर थोड़ा उदास होकर बोलीं । " कल हमर बियाह हो जाएत त हम चली जाएब ईहाँ से "। मुझे सिर्फ ब्याह शब्द सुनाई दिया । सो मैंने पूछा - "आपकी शादी हो रही है ? ये तो ख़ुशी की बात है ।" तो वो बोली "तू बुरबक ! संहर में रहकर कुंछो न जानिले , जे हमरा खेतन में पकड़ल रहे ओहकर बाप बीस हज़ार रूपया देले हमर बाऊजी के । कल भोर हम ऊ लड़िका के माई बन जाएब ओकर बाप से बियाह करके "। मुझे कुछ भी समझ नहीं आया । पता नहीं बाप से बारह साल की फुआ की शादी क्यूँ होगी ? फुआ का बीस साल का लड़का कैसे? और उनके बाऊजी को बीस हज़ार रूपए किस बात के दिए गए ? ख़ैर विदा होने का सोचकर मैंने फुआ को अपने पर्स में रखे जेबखर्च के पैसों मे से सौ रूपए दिए । वो तो जैसे बहुत ख़ुश हुई और बोली- " एतना रूपया कहाँ से पइले ?हम त अनाज चोरा के बेच के लेमनचूस खाईले" मैंने अपनी गुड़िया , एक रुमाल और अपना हेयरबैंड उन्हे निशानी के तौर पर दिया । उनका चेहरा इस बुखार में भी ख़ुशी से कितना चमक रहा था ? ख़ैर वो सारा सामान समेट कर भाग गईँ ।    
   दूसरे दिन उन्हे लाल रंग की साड़ी में लिपटे एक बूढ़े आदमी का हाथ पकड़े जाते देखा । साथ में शायद वही बीस साल का लड़का उनका नया बेटा था ,जिसकी वो बात कर रहीं थीं ।समझ में तो यह भी नहीं आया कि बिना बैंड-बाजा , बारात ,साज-सजाव, बिना मेहमान के , ये कैसी शादी है ? ख़ैर , अगले साल फिर गाँव पहुँची , और दौलत फुआ भी मिलीं पर ,इस बार वो बहुत बूढ़ी लग रही थी ,पूरे चालीस साल की । आँखों के नीचे पड़े गड्ढे , फटी साड़ी ,जला कोयले सा ,रंग उड़ा चेहरा और पेट कुछ ज़्यादा ही फूला हुआ था । ये कौन सा मोटा होना हुआ ! सिर्फ पेट से ? बाक़ी शरीर में तो जैसे जान ही नहीं थी । रात को हल्ला हुआ कि दौलत को लड़की हुई है वो भी हस्पताल ले जाते समय बीच रास्ते में ही । मुझे कुछ समझ नहीं आया । वो तो ख़ुद बच्ची थीं , उन्हें बच्ची कैसे ? पर मुझे जवाब कौन देता ? मेरे सवाल सुन  सब चुपचाप मुँह घुमाकर चल देते थे ।
      दूसरे दिन सुबह मैं दौलत फुआ को देखने गई । एक फूल सी गुलाबी बच्ची बिलकुल दौलत फुआ के जैसी उनके पास लेटी हुई थी । मुझे पास बुलाकर उन्होंने मेरे कान में कहा -"कुछ खाने के लिए ले आव न भूख लगल हेया "।मैं दौड़कर घर गई और अम्माजी के बनाए  रसगुल्लों से भरी हाँड़ी उठाकर जल्दी ही लेकर चली आई । वो दूसरे कमरे में जाकर छुपकर खाने लगीं । सारे रसगुल्लों के ख़त्म होने पर बोली -" बस जिए के मज़ा आ गईल , तू जहाँ रह भगवान तोरा सब तरह से सुखी रखें "। डबडबाई आँखों से मेरी तरफ़ देखा और बच्ची को सीने में लेकर अन्दर कमरे में चली गई । रात को फिर से ज़ोरों का हल्ला हुआ कि दौलत और उसकी बेटी आग में जलकर मर गई । चीख़ों की आवाज़ आती रही , लोग वहीं खड़े देखते रहे , और मैं एक कोने मे खड़ी बस ये समझने का प्रयत्न करती रही कि ये सब क्या हो रहा है ? समझ तो अब भी नहीं पाई कुछ भी , पर पता नहीं क्यों इस बैलाडोना लिली की स्मृति के साथ ही उनका चेहरा भी उतर आता है । और उनकी ज़िन्दगी इस बैलाडोना लिली की एक दिन की ज़िन्दगी के साथ ही जन्म लेती और मरती दिखाई देती है ।
    मैं तो नहीं समझ पाई , पर क्या आप समझा सकते हैं मुझे ? कि दौलत फुआ सिर्फ मेरे ख़यालों में बैलाडोना लिली बनकर क्यूँ रह गई हैं ?

पूजा रानी सिंह


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