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Tuesday, 29 April 2014

   " कहानी लछ्मिनिया की "

     हर साल जाती थी मैं गाँव , और इस साल भी गर्मी की छुट्टियों में गयी । वही नियमित रूप से हर बार कच्ची सड्कों पर पैदल  चलना और दूर से ही जो लाल दहकता अंगारों सा पलाश के फूलों से लदा वृक्ष  दिखता ,कदमों मे तेजी सी आ जाती । पके फ़लों से लदे हुए नीम के पेड़् की सुगंध ,उधर साइफ़न बान्ध के पुल पर बैठे मस्ती मे गीत गाते चरवाहे । वो बरगद का बडा सा पेड जहाँ सारे बुज़ुर्ग बैठ्कर पंचायत करते रहते । टूटी स्कूल की छत से बाहर झांकते बच्चे ,खेतों में लह्लहाती धान की बालियाँ ,पास ही नहर में कुछ पूरे नंगे और कुछ लंगोटी बान्ध कूद्-कूद कर चिल्लाते हुए नहाते अलमस्त चरवाहे । जैसे ही नज़र पडती हमपर, कोई बच्चा उठ्कर स्कूल की घंटी बजा देता और मास्टरजी के लाख चिल्लाने पर भीं भगदड़् मच जाती  । सारे बच्चे अपना झोला उठा कर भाग जाते। वहीं कुछ नन्हे हाथ आकर हमारे हाथ से बैग , पानी की बोतल सब कुछ छीन कर भाग जाते । हाँ ! हमसे पहले  हमारे आने की खबर घर पर पहुँच  जाती ।

 सारा सामान आँगन मे बिछी चौकी पर रखा रह्ता । सौंफ़ काली मिर्च का ठंडा मीठा शरबत लोटे मे भरकर् पीने को मिलता । सच मे  सूखे-जले गले को जैसे तुरन्त तराई मिल जाती । उसके बाद खाने की सुगन्ध का तो पूछो ही मत , देसी घी  मे तले जाते पराठे , साथ मे घीया या तोरैइ की सब्जी और पीछे स्टोव पर तले जाते गरमागरम पकोडे़ ।

   ये सारे काम करती "  लछमिनिया " और उसकी पूरी फ़ौज । चलिये आपको परिचय दे दूँ -गेहुआँ रंग ,मध्यम कद -काठी , साडी नीचे से थोडा़ ऊपर उठा कमर मे खोसी हुई । पेट से गर्भवती और कैची की तरह चलती उसकी ज़ुबान । हरदम चिल्लाती रहती ,कभी गाली  देती ,कभी ज़ोर्-ज़ोर से हँसती । लेकिन कभी भी खाली बैठे नहीं देखा उसे । उसका साथ देते कई नन्हे हाथ जो उसके बच्चे थे । हर साल एक नया नाम और एक नया बच्चा मिलता देखने को । इस बार भी दिखी एक नई लडकी ,नाम पता चला " किशमिश " । लछमिनिया के साथ -साथ वो सब भी हमारे आगे पीछे दौड्ती रह्तीं । कभी टौफ़ी , चाक्लेट या मिठायी मिल जाति उन्हें ,तो झट हाथ मे ले भाग जातीं  ।  लाख बोला यहीं खा लो पर कभी खाते नही देखा उन बच्चों को । पहली  थी बादामो , दूसरी सुखनी , तीसरी तेतर ,चौथी मुनिया और पाँचवीं थी किशमिश । शायद छठा बच्चा आने वाला था । हाँ , एक बेटा भी था सबसे बडा़  उसका नाम था-" अन्हरा " । पैदा होते ही उसे चेचक हुआ था और उसकी दोनो आँखें चली गयी थीं । अँधा था पर गाता बहुत खूब था । साईफ़न पर बैठ वही गा रहा था । बिना आवाज किये या बोले भी ,पता नही वो कैसे हमे पह्चान जाता था ? दीपाजी आई हैं , दीपाजी आई हैं , सुधान्शुजी आये हैं , गाँव मे हल्ला मचा  देता था ।

      लेकिन बात तो लछ्मिनिया की है , हर बार आठ महीने की गर्भवती मिलती थी मुझे । कितने सालों से ऐसा ही हो रहा था । पती रामासरे कुछ नही करता था वो तो शायद गाँव मे रह्ता भी नही था । राजपूतों   के घर मे काम करती थी । उन्हीं के घरों से बचा -खुचा खाना लाकर बच्चों का पेट भरती थी ।

     उसका घर देखा मैने , झोपडी क्या ! बस थोडी सी ज़मीन भर थी । एक तरफ़ पुराने ,फ़टे , मैले कपडों का ढेर लगा हुआ था । गन्दगी ही गन्दगी चारों तरफ़ फ़ैली हुई थी । बच्चे ज़ोर - ज़ोर से बिलख रहे थे । एक कोने मे रखा मिट्टी का चुल्हा जैसे बरसों से जला ही नहीं था । वहीं एक कोने मे दो बच्चियाँ लगभग एक और दो साल की , पर देखने मे एक बराबर , बुक्का फ़ाड़् कर रोये जा रही थीं ।

 ध्यान से देखा मैनें तो दोनों के पैर धनुष की तरह अन्दर को मुडे़ हुए थे । हाईस्कूल की किताब में पढा़ था मैने विटामिन डी की कमी  से रिकेट्स नाम की बीमारी होती है ये । पर सामने देखना बडा़ दर्दनाक था मेरे लिये । एक बडे़ से मिटटी के बरतन मे़ माड़् (चावल का  पानी) रखा था जिसमे़ जहां- तहां कुछ दाने चावल के तैर रहे थे । समझ गयी रोज़ लछ्मिनिया को माड़् फ़ेंकने मे इतनी देर क्यूँ लगती थी ? वो गाय -बैलों को देने की बजाय अपने  बच्चों के लिये लेकर आती थी । एक कोने में अन्हरा कुछ टटोल रहा था खाली हान्डी में । मैं और देख ही नही पाई ।

 मुझे लछमिनिया से घिन्न आ रही थी । दूसरों का घर साफ़ करती है ,बच्चे पालती   है और खुद के घर में इतनी गन्दगी ? गुस्से मे घर आई मै और अपना निर्णय सुन दिया सबको " लछमिनिया आज से घर मे काम नही करेगी , वो पहले अपने बच्चों और घर को ठीक करे, इलाज़ कराये बीमारी  का उसके बाद ही घर मे घुसने दूँगी " । मेरा इतना बोलना भर था कि वो तो जैसे चिल्लाती हुई मुझ पर बिफ़र सी  पडी । "कौन देत पैसा दीपाजी ?रऊआ देब ? बीस रुपया महीना मजूरी देईला ,उभी पियक्कड ससुरा मार - पीट के हमरा से छीन लेव हे। हमर भर्तार भागल बा चोरी करके , घर्- घर के जूठन बटोर के लडिकिन के पोसली । उहो पर कभि ईहाँ कभी उहाँ जेकरा मन जहाँ हमर हाथ पकड के खीच ले जाले ई जर्लाहा ..मुँह झोँसा मर्दाना तैहन्.. । अपन देह मे दूसर के पाप ले कर ढोवत चलली । हमर न हवन, ई बच्चा सब राऊर लोगन के देल हवन । पियक्कड ससुर ...तडीपार भरतार ...के हमरा के बचायी ? "लछ्मिनिया भद्दी गालियाँ दे रही थी ,मैं हतप्रभ सी चुपचाप  सुन रही थी। वो दो दिन नही आयी काम पर , तीसरे दिन आयी तो रो रही थी । आँसू पोछ कर बोली- " हमर लडिकी मर गैइलें ,हमरा काम करे दिहूँ मालकिन " । मै समझ गयी खाने के अभाव मे दोनो बीमार लड़कियाँ    मर गईं थीं । वो चुपचाप   काम करती रही और मैं पता नहीं क्यूँ रोती ही जा रही थी ।

       पर लछ्मिनिया के आँसू थम चुके थे । मैने जान - बूझकर अपने कान का एक सोने का झुमका आँगन मे गिरा दिया और कमरे मे चली गयी । शाम को सबने टोका कि आपका एक कान का झुमका नही है तो मै लछमिनिया कि ओर देखकर बोली-" कोई बात नही जिसकी किस्मत में होगा उसको मिल जायेगा "।लछमिनिया झाडू लगा ढूँढ रही थी मेरा झुमका और मै अपना सामान पैक् करने मे लगी थी ।  निकलते वक़्त दूसरा झुमका लछमिनिया के हाथ मे देकर बोली -" ये एक झुमका  मेरे किस काम का ? तुम रख लो तुम्हारा बच्चा होने  वाला है, इस बार हस्पताल चली जाना " ।

 पूजा रानी सिंह्

5 comments:

  1. मार्मिक और भावपूर्ण कहानी
    मन को छूती हुई
    बहुत सुन्दर
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बधाई

    आग्रह है---- मेरे ब्लॉग में सम्मलित होँ
    और एक दिन

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    1. बहुत शुक्रिया jyoti Khare sir ज़रूर मैं आपके ब्लौग की नियमित पाठिका हूँ ।

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  2. Replies
    1. शुक्रिया संजय भास्कर जी

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  3. aaj apka mai jiwan parichay padha, kaafee kuchh kiya hai aur kaafee kuchh kar rahi hai, my best wishes for yor bright future

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