कविता " खेल शब्दों का "
इस शब्दों के खेल में
कौन हारा , कौन जीता ?
किसने किया विजय उद्घोष ?
कौन संभावनाओं में रहा जीता ?
किसने किया चरित्र हनन ?
किसका पल दु:ख से बीता ?
कहो कौन भेद सका चक्रव्यूह ?
या कि कौन मरकर मृत्यु से जीता ?
किस अबला को अलंकृत किया गया ?
या कि जलाई गई कोई नवल पुनीता ?
मैं तो दिव्यचक्षु बन अभिशापित रही !
सब कुछ देखती इन निरीह आँखों से !
लोग मरे , वेदनाएँ मरी , संवेदनाएँ मरी ,
मैं बस इनकी व्याख्या में ही लगी रही !
पर , सच कहूँ तो जितनी बार लोग मरे ,
उतनी ही बार मरी मैं !!
जितनी बार लोग छले गए ,
उतनी ही बार छली गई मैं !!
जितने ही अत्याचारियों को मिली राजगद्दी ,
उतनी ही बार काँटों के ताज से सजी मैं !!
हर बार बिखरती गई स्याही ,
और विकृत होते गए विचार ,
सब भूल गए आपस का मित्रवत प्यार ,
इस शब्दों के खेल में !!
पूजा रानी सिंह
इस शब्दों के खेल में
कौन हारा , कौन जीता ?
किसने किया विजय उद्घोष ?
कौन संभावनाओं में रहा जीता ?
किसने किया चरित्र हनन ?
किसका पल दु:ख से बीता ?
कहो कौन भेद सका चक्रव्यूह ?
या कि कौन मरकर मृत्यु से जीता ?
किस अबला को अलंकृत किया गया ?
या कि जलाई गई कोई नवल पुनीता ?
मैं तो दिव्यचक्षु बन अभिशापित रही !
सब कुछ देखती इन निरीह आँखों से !
लोग मरे , वेदनाएँ मरी , संवेदनाएँ मरी ,
मैं बस इनकी व्याख्या में ही लगी रही !
पर , सच कहूँ तो जितनी बार लोग मरे ,
उतनी ही बार मरी मैं !!
जितनी बार लोग छले गए ,
उतनी ही बार छली गई मैं !!
जितने ही अत्याचारियों को मिली राजगद्दी ,
उतनी ही बार काँटों के ताज से सजी मैं !!
हर बार बिखरती गई स्याही ,
और विकृत होते गए विचार ,
सब भूल गए आपस का मित्रवत प्यार ,
इस शब्दों के खेल में !!
पूजा रानी सिंह
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