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Wednesday, 30 April 2014

लघु कथा :- " नए वर्ष की पार्टी "

              " नए वर्ष की पार्टी "

" वाह ! मज़ा आ गया ! ज़बरदस्त स्वाद है यहाँ के खाने का ! वो ग्रीन सैलेड पास करना अमन ! एक मौकटेल भी मँगवा दो ना ! वो खाना निगलने में आसानी रहती है ! "

ख़ूब जमकर खाना खाया साक्षी ने । अमन आज नए साल का यह दिन बहुत शानदार मनाना चाहता था , सो ली मेरीडियन होटल में अरेबियन नाइट्स थीम की बुकिंग की थी उसने । बच्चों के लिए पूरा इन्तज़ाम अलग था , नैनी भी थी और उनके प्रोग्राम अलग चल रहे थे ।

 चारों तरफ़ जोड़े मस्ती में घूम रहे थे । पब में , डिस्कों में , बड़ी ही भीड़ थी पर सब इन्जौए कर रहे थे । बड़े डिज़ाइनर का फ़ैशन शो चल रहा था । सबने मिडी या शौर्ट ड्रेस पहन रखी थी , हाई हील , मैचिंग एक्सेसरीज़ के साथ । जैसा सारा माहौल ही जगमगा सा रहा हो ।

अमन भी बीच में कुछ लड़कियों की ख़ूबसूरती और कपड़े निहार रहा था । कभी -कभी जानबूझकर लड़कियों से अनजान बनकर उनसे सटने या उन्हें छूने की कोशिश करता । पर साक्षी तो बस साल का आख़िरी दिन और नए साल का स्वागत भरपूर ख़ुशी से करना चाहती थी , सो ख़ूब नाची म्यूज़िक पर ।

पहली बार वोदका के शौट लगाए ! अपनी ब्लैक एंड व्हाईट मिनी ड्रेस में तो जैसे पंख लगाकर आई हो ! उड़ती हुई सी जाकर अमन के सीने से लिपट जाती । अमन उसे ख़ुश देख मुस्कुराता । इस बार इस एक शाम की दस हज़ार रुपए में बुकिंग की थी ली मेरीडियन में ।

रात दो बजे तक नए साल की धूम मचती रही । अरेबियन डाँसर्स के आते ही सीटियाँ बजने लगीं । पूरा माहौल उत्तेजित हो गया । सारे जोड़े एक दूसरे की बाँहों में झूम रहे थे । सबपर पश्चिमी सभ्यता का ख़ास असर दिख रहा था । इस बार ज़्यादातर परिवार वाले आए थे । होटल में एक रात की बुकिंग पचास हज़ार की चल रही थी । दसियों  लोगों ने , रूम भी बुक किया था ।

क़रीब चार बजे सुबह , साक्षी और अमन बच्चों के साथ होटल की कैब से घर पहुँचे । आते ही सब यहाँ -वहाँ बिस्तर पर लुढ़क से गए । सुबह ठीक आठ बजे डोरबेल बजी । किसी तरह अलसाई हुई सी साक्षी उठकर दरवाज़े तक पहुँची ।

मेड ने उसकी ड्रेस देखते ही पूछा -" मैडम ! आप पार्टी से आकर ऐसे ही सो गए ? अच्छा ड्रेस है आपका ? कितने का लिया ? "

" पाँच हज़ार लगे थे ड्रेस में , और पार्टी की बुकिंग दस हज़ार में हुई थी ।" साक्षी उसी अलसाई मुद्रा में बोली ।

" मतलब पंद्रह हज़ार रुपए एक रात की पार्टी के लिए ! मेरी एक महीने की तनख़्वाह प्ंद्रह सौ रुपए है , यानी मेरी पूरे दस महीने की तनख़्वाह आपने एक रात में ख़र्च कर दिए !! " वह आश्चर्य में बोली ।

साक्षी तो सच में दंग रह गई !

" वाक़ई मेरी मेड की पूरी दस महीने की तनख़्वाह !!"  उसका  सारा पार्टी का नशा एक झटके में उतर गया ।
अब अगले साल सोचना पड़ेगा ।

पूजा रानी सिंह

Tuesday, 29 April 2014

कहानी " द अदर गाई "

आज के दौर में पारिवारिक जीवन के मापदंड और धारणाएँ बदल सी गई हैं । किसी समय पति -पत्नि दाम्पत्य जीवन के आधारस्तंभ कहलाते थे , अब एक नया नाम सुना " द अदर गाई - The other Guy " तो देखते हैं आज की इस रोचक कथा में कैसा बदलाव आया है ?

" यार , क्या करूँ कुछ समझ नहीं आ रहा है ? एक बार फिर से नए तरीक़े से नौकरी ढूँढनी पड़ेगी । कितने सालों से इस कंपनी में हूँ । हर बार इतना धंधा दिया । कई बिलियन डाँलर का मुनाफ़ा हर साल मिलता रहा कंपनी को मुझसे । लगातार चार साल से अवार्ड मिलता रहा है । पिछले साल ही तो मैनेजर बना हूँ । कितना कुछ पाया , कमाया , सब एक पल में ख़त्म । "

सिर पकड़ कर बैठा था मेरे सामने  मेरा मैनेजर " बीनू जोजफ " मैं समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ ? या क्या कहूँ ? इस तरह मेरे सामने बैठकर कभी खुलकर बात नहीं हुई थी इससे । आज मुझे बुलाकर इस तरह , क्या मतलब है इसका ? मैं तो इसके जाने से मन ही मन ख़ुश भी हूँ । बाक़ी लोग भी मज़े ही ले रहे हैं ।
कोई भी पसंद नहीं करता इसे । साला अकड़ू ! जब देखो तब बिज़नेस दो , बिज़नेस दो । ज़बरदस्ती का टार्गेट  बढ़ा देगा ! ख़ुद पैसा बनाता है और बाक़ी लोगों को उल्लू ! अब ख़ुद पर पड़ी है तो बड़ा प्यार जताया जा रहा है । तेरी तो @?!#%$£ ।

" हाँ ! बीनू ! क्या हुआ ? आपने रिजाईन क्यूँ कर दिया ? वहाँ यू एस में भी आपके ना आने पर सब लोग पूछ रहे थे । आपकी बेस्ट डील की स्लाईड में से आपका नाम और फ़ोटो भी काट दिया गया था । ख़ुद विनय ( सेल्स डायरेक्टर ) भी दुखी थे आपका नाम हटा देखकर । कई मीटिंग में मुझे आपके साथ जाना था । पर मैं विनय के साथ गया । एकदम से ये डिसीजन क्यूँ ? आपका अवार्ड विनय के नाम पर शिफ़्ट हो गया । कहीं दूसरी जगह अच्छा जौब औफर मिला है क्या ? "

मैं भी पूरे मज़े ले रहा था । इस साले ने मेरी मार रखी थी पूरे तीन साल से । मेरी हायरिंग में भी कमीनापन दिखाया था । ए एक्स की जगह सेल्स रेप की पोज़ीशन दी थी , ताकि पैकेज कम रहे । नया बिज़नेस लाने के नाम पर अकाउंट हंट और कोल्ड कौल्स करवाई रात दिन । इसी काम के लिए इंजीनियरिंग करी थी क्या ? चलो कोई तो है इसकी ऐसी तैसी करने वाला । भगवान भला करे उसका जिसने इस मक्कार को यहाँ से हटाया । साला जाते -जाते भी अपना कमीनापन दिखाकर ही जा रहा है । मेरा सारा काम अपने खासमखास नौसिखिए हैदराबादी मुल्ले को पकड़ाकर जा रहा है । अकाउंट खोजें मैंने , पाइपलाईन मैंने बनाई , धंधा आने का टाईम आया तो ट्राँसफर कर दिया मुल्ले को ।

" हाँ बीनू ! कुछ कह रहे थे आप ? "

" रुको ! ज़रा दरवाज़ा बंद कर दूँ केबिन का । "

बीनू दरवाज़ा बंद करके आया , और अपनी बात कहने लगा ।

" वो यू एस में क्या हुआ सब बताओ मुझे । मेरे रिजाईन करने से क्या रिएक्शन था सबका ? वैसे मैं यूएस में ही नौकरी ढूँढ रहा हूँ । पिछले तीन साल से प्लान बन रहा था यू एस शिफ़्ट होने का । पर, हर बार मैं मना कर देता था । यहाँ घर ख़रीदा है । बच्चे का स्कूल है । अच्छी नौकरी है । सब कुछ अब बेचना पड़ेगा । सारे सपने !  सब नए सिरे से शुरू करना पड़ेगा । तुम्हारे तो कई दोस्त हैं अमेरिका में । कोई सेल्स में ओपेनिंग हो तो बताओ । वैसे वहाँ एक से एक धुरंधर बैठे हैं पर मैं इंडिया का बेस्ट बंदा हूँ । पता नहीं क्या गेम कर दिया विनय ने और कंट्री मैनेजर ने ?  मुझे यू एस में कंसीडर ही नहीं कर रहे हैं । बड़ा बुरा लग रहा है । जिस कंपनी के लिए इतनी मेहनत की , रिजाईन करने पर कोई मुझे पूछ ही नहीं रहा । "

मैंने भी मज़े लिए ।

" हाँ बीनू ! वैसे किसी ने यू एस में भी आपके बारे में ख़ास तवज्जो नहीं दी । किसी ने ज़िक्र ही नहीं किया आपके बारे में । सब इन्जॅाय कर रहे थे । जब आदमी सिस्टम से बाहर हो जाता है तब उसकी किसी को परवाह ही नहीं रहती । जब तक आप सिस्टम में हैं लोग आपको पूछते रहते हैं । वैसे आपके जाने से विनय को ज़्यादा फ़ायदा हो रहा है । ( मैंने चुटकी ली ) हाँ ! विनय को दुख भी है , यू एस में आपकी बेस्ट डील में फ़ोटो और नाम हटाने का ख़ुद उसे भी पता नहीं था । पर आपका अवार्ड उसे मिलने से इममीडिएट मौनीटरी बेनिफिट तो उसे ही मिला है । वैसे मेरा मकान मालिक बहुत बड़ी कंपनी का सी ई ओ है । आज के टाईम्स औफ इण्डिया न्यूज़ पेपर में उसने यू एस में टेक्निकल सेल्स डायरेक्टर की ओपेनिंग निकाली है । आप कहें तो मैं बात करूँ ? "

बीनू के चेहरे पर मुस्कान आई । लैपटॉप पर झट से जौब प्रोफ़ाईल सर्च करने लगा । मैंने कंपनी का और अपने मकान मालिक सी ई ओ का नाम बता दिया । पर शायद कंपनी की वेबसाईट पर जौब अपडेट नहीं था सो आज का पेपर मैंने उसकी ओर बढ़ा दिया । पेपर की कटिंग लेकर उसने बड़े ही भरोसे से उसने मेरी ओर देखा और मेरा हाथ पकड़ कर बोला ।

" सुनो अमन !  यह बात इस कमरे से बाहर नहीं जानी चाहिए । मैंने ही तुम्हारी हायरिंग की थी । वैसे दस साल से कम के एक्सपीरियंस वाले को हम हायर नहीं करते थे पर तुम्हारी क़ाबिलियत को मैंने परखा । "

मन से इतनी गालियाँ निकली पर चुपचाप सह गया , अब नौकरी छोड़कर जा ही रहा है तो बोल लेने दो साले को । वैसे मेरे साथ छत्तीस का आँकड़ा रहा है साले का । सब कहते थे कि बीनू की जगह अमन को ही मिलेगी । मेरे आने से इसके अवार्ड भी छिन गए । अब स्टार परफौर्मर मैं हूँ । ये जाए तो नए तरीक़े से मौक़ा मिलेगा ।

उधर बीनू कह रहा था ।

"  विनय और कंट्री मैनेजर को भी पता है कि मैंनें उनकी इज़्ज़त बचाई । तीन साल से ओवर अचीव किया टारगेट , उन्हें भी पैसे बनाने का मौक़ा दिया । अब आज ये यू एस के औफिस में नाम भी नहीं कंसीडर कर रहे ! मैं चाहूँ तो कौंपीटीटर को ज्वाइन कर सकता हूँ , फिर इनकी ऐसी तैसी कर दूँगा । सारा बिज़नेस चौपट हो जाएगा । वो तो मेरी मजबूरी है यू एस जाना । कोई अपने मन से नहीं जा रहा हूँ मैं । मेरी बीवी की कंपनी से उसको तीन साल के लिए यू एस भेज रहे हैं । स्पाउस के लिए भी वर्क वीज़ा मिल जाएगा । पिछले कई सालों से टाल रहा था मैं । पर इस बार " द अदर गाई , वौन्टेड टु गो टू यू एस डेस्परेटली । " एक छोटा बेटा है । उसकी परवरिश कैसे होगी ? अगर परिवार छोड़ता हूँ तो नौकरी का क्या फ़ायदा ? किसके लिए कमाऊँगा ?  सो मन ना रहते हुए भी जाना पड़ रहा है । अब वहीं जाकर नौकरी ढूँढता हूँ ।"

तो यह अदर गाई यानी बीनू की बीवी का किया सारा ड्रामा है । मन ही मन बहुत हँसी आई कि और लो मज़े हमारे । असली मज़े तो तुम्हारी बीवी ले रही है । शुक्र है मैंने अपनी बीवी की नौकरी छुड़वा दी । नहीं तो , उसकी नौकरी के चक्कर में मेरी फ़ज़ीहत भी होनी ही थी । घर आओ बच्चा संभालो , या मेड के भरोसे रखो । बच्चे बड़े होते तो हैं पर माँ बाप को इज़्ज़त देना भूल जाते हैं । जब आप नौकरी करोगे तो औलाद पैदा ही क्यों करते हो ? ख़ैर ! बीनू की हालत बड़े ही अच्छे से समझ आ रही थी । इससे पहले कि वो अपनी अदर गाई के बारे में कुछ और बात छेड़कर इमोशनल हो , मैं निकल लिया ।

" बीनू ! मेरे घर से फ़ोन आ रहा है । चलता हूँ । तुम्हारे यू एस के करियर के लिए बेस्ट औफ लक । मेरी कोई ज़रूरत हो तो बताना । मेरे लिए भी नौकरी हो तो ढूँढ देना । वैसे वहाँ अगर मियाँ बीवी दोनों काम ना करें तो , हैंड टु माउथ वाली परिस्थिति हो जाती है । मेरे दोस्त की बीवी काम नहीं करती । वे लोग एक कमरे के मकान में रहते है । 7000$ मिलता है , 2000$किराया है , 1000$ कार का लोन , 2000$ घर ख़र्च के , 1000$ पेट्रोल के बाक़ी बचा एक हज़ार डॉलर , उससे ज़्यादा तो इण्डिया में रहकर सेविंग हो जाती है । "

यह सुनकर बीनू उदास होकर बोला ।

" यार तुम्हारी कैलकुलेशन तो बड़ी पक्की रहती है । आई विल टेल अबाउट दिस टु दी अदर गाई । "

मैं चुपचाप हाथ मिलाकर बाहर आ गया । सारे कुलीग्स का ध्यान मुझपर था ।

" क्या बातें हुई पिछले एक घंटे से बंद कमरे में , वो भी बीनू के साथ ।"

संगीता ने पूछा ।

मैंने मुस्कुराते हुए कहा ।

" कुछ नहीं इस बार बीनू की अदर गाई ने मार ली है सो वो शौक़ में है ।"

सब खिलखिला कर हँस पड़े । मैं भी हँसता हुआ अपनी बीवी को सारी बात बताने के लिए फ़ोन उठाकर कार की पार्किंग की ओर बढ़ गया ।

पूजा रानी सिंह


   " कहानी लछ्मिनिया की "

     हर साल जाती थी मैं गाँव , और इस साल भी गर्मी की छुट्टियों में गयी । वही नियमित रूप से हर बार कच्ची सड्कों पर पैदल  चलना और दूर से ही जो लाल दहकता अंगारों सा पलाश के फूलों से लदा वृक्ष  दिखता ,कदमों मे तेजी सी आ जाती । पके फ़लों से लदे हुए नीम के पेड़् की सुगंध ,उधर साइफ़न बान्ध के पुल पर बैठे मस्ती मे गीत गाते चरवाहे । वो बरगद का बडा सा पेड जहाँ सारे बुज़ुर्ग बैठ्कर पंचायत करते रहते । टूटी स्कूल की छत से बाहर झांकते बच्चे ,खेतों में लह्लहाती धान की बालियाँ ,पास ही नहर में कुछ पूरे नंगे और कुछ लंगोटी बान्ध कूद्-कूद कर चिल्लाते हुए नहाते अलमस्त चरवाहे । जैसे ही नज़र पडती हमपर, कोई बच्चा उठ्कर स्कूल की घंटी बजा देता और मास्टरजी के लाख चिल्लाने पर भीं भगदड़् मच जाती  । सारे बच्चे अपना झोला उठा कर भाग जाते। वहीं कुछ नन्हे हाथ आकर हमारे हाथ से बैग , पानी की बोतल सब कुछ छीन कर भाग जाते । हाँ ! हमसे पहले  हमारे आने की खबर घर पर पहुँच  जाती ।

 सारा सामान आँगन मे बिछी चौकी पर रखा रह्ता । सौंफ़ काली मिर्च का ठंडा मीठा शरबत लोटे मे भरकर् पीने को मिलता । सच मे  सूखे-जले गले को जैसे तुरन्त तराई मिल जाती । उसके बाद खाने की सुगन्ध का तो पूछो ही मत , देसी घी  मे तले जाते पराठे , साथ मे घीया या तोरैइ की सब्जी और पीछे स्टोव पर तले जाते गरमागरम पकोडे़ ।

   ये सारे काम करती "  लछमिनिया " और उसकी पूरी फ़ौज । चलिये आपको परिचय दे दूँ -गेहुआँ रंग ,मध्यम कद -काठी , साडी नीचे से थोडा़ ऊपर उठा कमर मे खोसी हुई । पेट से गर्भवती और कैची की तरह चलती उसकी ज़ुबान । हरदम चिल्लाती रहती ,कभी गाली  देती ,कभी ज़ोर्-ज़ोर से हँसती । लेकिन कभी भी खाली बैठे नहीं देखा उसे । उसका साथ देते कई नन्हे हाथ जो उसके बच्चे थे । हर साल एक नया नाम और एक नया बच्चा मिलता देखने को । इस बार भी दिखी एक नई लडकी ,नाम पता चला " किशमिश " । लछमिनिया के साथ -साथ वो सब भी हमारे आगे पीछे दौड्ती रह्तीं । कभी टौफ़ी , चाक्लेट या मिठायी मिल जाति उन्हें ,तो झट हाथ मे ले भाग जातीं  ।  लाख बोला यहीं खा लो पर कभी खाते नही देखा उन बच्चों को । पहली  थी बादामो , दूसरी सुखनी , तीसरी तेतर ,चौथी मुनिया और पाँचवीं थी किशमिश । शायद छठा बच्चा आने वाला था । हाँ , एक बेटा भी था सबसे बडा़  उसका नाम था-" अन्हरा " । पैदा होते ही उसे चेचक हुआ था और उसकी दोनो आँखें चली गयी थीं । अँधा था पर गाता बहुत खूब था । साईफ़न पर बैठ वही गा रहा था । बिना आवाज किये या बोले भी ,पता नही वो कैसे हमे पह्चान जाता था ? दीपाजी आई हैं , दीपाजी आई हैं , सुधान्शुजी आये हैं , गाँव मे हल्ला मचा  देता था ।

      लेकिन बात तो लछ्मिनिया की है , हर बार आठ महीने की गर्भवती मिलती थी मुझे । कितने सालों से ऐसा ही हो रहा था । पती रामासरे कुछ नही करता था वो तो शायद गाँव मे रह्ता भी नही था । राजपूतों   के घर मे काम करती थी । उन्हीं के घरों से बचा -खुचा खाना लाकर बच्चों का पेट भरती थी ।

     उसका घर देखा मैने , झोपडी क्या ! बस थोडी सी ज़मीन भर थी । एक तरफ़ पुराने ,फ़टे , मैले कपडों का ढेर लगा हुआ था । गन्दगी ही गन्दगी चारों तरफ़ फ़ैली हुई थी । बच्चे ज़ोर - ज़ोर से बिलख रहे थे । एक कोने मे रखा मिट्टी का चुल्हा जैसे बरसों से जला ही नहीं था । वहीं एक कोने मे दो बच्चियाँ लगभग एक और दो साल की , पर देखने मे एक बराबर , बुक्का फ़ाड़् कर रोये जा रही थीं ।

 ध्यान से देखा मैनें तो दोनों के पैर धनुष की तरह अन्दर को मुडे़ हुए थे । हाईस्कूल की किताब में पढा़ था मैने विटामिन डी की कमी  से रिकेट्स नाम की बीमारी होती है ये । पर सामने देखना बडा़ दर्दनाक था मेरे लिये । एक बडे़ से मिटटी के बरतन मे़ माड़् (चावल का  पानी) रखा था जिसमे़ जहां- तहां कुछ दाने चावल के तैर रहे थे । समझ गयी रोज़ लछ्मिनिया को माड़् फ़ेंकने मे इतनी देर क्यूँ लगती थी ? वो गाय -बैलों को देने की बजाय अपने  बच्चों के लिये लेकर आती थी । एक कोने में अन्हरा कुछ टटोल रहा था खाली हान्डी में । मैं और देख ही नही पाई ।

 मुझे लछमिनिया से घिन्न आ रही थी । दूसरों का घर साफ़ करती है ,बच्चे पालती   है और खुद के घर में इतनी गन्दगी ? गुस्से मे घर आई मै और अपना निर्णय सुन दिया सबको " लछमिनिया आज से घर मे काम नही करेगी , वो पहले अपने बच्चों और घर को ठीक करे, इलाज़ कराये बीमारी  का उसके बाद ही घर मे घुसने दूँगी " । मेरा इतना बोलना भर था कि वो तो जैसे चिल्लाती हुई मुझ पर बिफ़र सी  पडी । "कौन देत पैसा दीपाजी ?रऊआ देब ? बीस रुपया महीना मजूरी देईला ,उभी पियक्कड ससुरा मार - पीट के हमरा से छीन लेव हे। हमर भर्तार भागल बा चोरी करके , घर्- घर के जूठन बटोर के लडिकिन के पोसली । उहो पर कभि ईहाँ कभी उहाँ जेकरा मन जहाँ हमर हाथ पकड के खीच ले जाले ई जर्लाहा ..मुँह झोँसा मर्दाना तैहन्.. । अपन देह मे दूसर के पाप ले कर ढोवत चलली । हमर न हवन, ई बच्चा सब राऊर लोगन के देल हवन । पियक्कड ससुर ...तडीपार भरतार ...के हमरा के बचायी ? "लछ्मिनिया भद्दी गालियाँ दे रही थी ,मैं हतप्रभ सी चुपचाप  सुन रही थी। वो दो दिन नही आयी काम पर , तीसरे दिन आयी तो रो रही थी । आँसू पोछ कर बोली- " हमर लडिकी मर गैइलें ,हमरा काम करे दिहूँ मालकिन " । मै समझ गयी खाने के अभाव मे दोनो बीमार लड़कियाँ    मर गईं थीं । वो चुपचाप   काम करती रही और मैं पता नहीं क्यूँ रोती ही जा रही थी ।

       पर लछ्मिनिया के आँसू थम चुके थे । मैने जान - बूझकर अपने कान का एक सोने का झुमका आँगन मे गिरा दिया और कमरे मे चली गयी । शाम को सबने टोका कि आपका एक कान का झुमका नही है तो मै लछमिनिया कि ओर देखकर बोली-" कोई बात नही जिसकी किस्मत में होगा उसको मिल जायेगा "।लछमिनिया झाडू लगा ढूँढ रही थी मेरा झुमका और मै अपना सामान पैक् करने मे लगी थी ।  निकलते वक़्त दूसरा झुमका लछमिनिया के हाथ मे देकर बोली -" ये एक झुमका  मेरे किस काम का ? तुम रख लो तुम्हारा बच्चा होने  वाला है, इस बार हस्पताल चली जाना " ।

 पूजा रानी सिंह्

कहानी " यह जीवन अब और नहीं "

कहानी " यह जीवन अब और नहीं "

" कुछ नहीं है इस जीवन में !!  सब शून्य हो गया है , सबका साथ छूट गया है ।  मैं भी तो जैसे अनंतकाल से भटक रहा हूँ , समय भी नए खेल रच रहा है ,  हर बार हस्पताल जाता हूँ इस गरज से  कि देह छूट जाए  पर , फिर वही ग्लूकोज़ नली से चढ़ा देते हैं और दो दिन में घर वापस भेज देते हैं । वो तो भला हो हेल्थ इंश्योरेंस वालों का कि बेटे के पैसे बच जाते हैं  पर , अब नहीं जीना चाहता हूँ !! कितना जिऊँ मैं ? पत्नी तीस वर्ष पहले साथ छोड़ गई , अब तो बड़ा बेटा भी नहीं रहा ।  दिल का दौरा पड़ा था उसे । मेरे सारे मित्र , संगी - साथी , सब बरसों पहले एक - एक करके साथ छोड़ गए । बस ख़बर मिल जाती थी मुझे  !! हर रोज़ अपनी डायरी लेकर लिखता रहता हूँ । अब तो जैसे रात को पन्ने भी चारों तरफ़ नाचते रहते हैं !!  याददाश्त का तो ऐसा है कि बचपन की बात अभी तक याद है  बस , शादी के बाद से नौकरी की हर बात भूल गया । कितनी कंपनी में कब काम किया याद ही नहीं रहा  !  कितना कमाया पता नहीं  ! बस पेँशन के लिए बेटा साइन ले लेता है  और अब तो बैंक जाकर हाज़िरी देनी पड़ती है कि ज़िंदा हूँ पेँशन बंद मत करो !!

छोटा बेटा सब समझता है , पूरी तल्लीनता से मेरी सेवा कर रहा है । वह जानता है कि मैं ज़िंदा रहूँगा तो पेंशन मिलती रहेगी सो , कोई कसर नहीं छोड़ता है दवा दारू में !  पर मेरी कोई नहीं सुनता । सौ से ऊपर सावन देखें मैंने , बचपन से जवानी तक का सारा वाक़या याद है मुझे । वो साइफन के बाँध पर मछली पकड़ते थे हम । एक बार बंसी में मोटी मछली फँसीं थी । सारे दोस्तों ने मिलकर बाहर निकाली बंसी ।  नरकंकाल निकला था !!  कितना डर गए थे हम !! भूत - भूत चिल्लाते वापस गाँव की ओर सब भाग निकले थे । ख़ूब साबुन लगा-लगाकर मल-मलकर नहाए  पर , भूत तो जैसे पीछे ही पड़ गया था ।  कई रात डरावने सपने आते रहे थे । अब तो नींद ही नहीं आती । रात को पड़ा रहता हूँ निर्जीव सा  । नियम से रामखेलावन या छोटा बेटा सहारा देकर हर तीन घंटे पर करवटें बदल देता है और पत्नी का तो अब चेहरा भी याद नहीं  !!  कैसी दिखती थी वो ? कैसा मुस्कुराती थी ?  बस यह ध्यान है कि वो जल्द ही बूढ़ी हो गई थी । नाती -पोता , घर परिवार में उलझी रहती थी सो , ध्यान से उसके चेहरे की झुर्रियाँ भी नहीं पढ़ पाया ।  पर मेरा ख़ूब ख़याल रखती थी । मेरे कपड़े , जूते , पैंट - शर्ट  सब आख़िरी समय तक सहेज कर रखती रही  । फिर जाने कब साथ छोड़ गई वो !! मैं तो रो भी नहीं सका था  ।

.....और अब रोने का मन ही नहीं करता । मुझे जीवन से परहेज़ हो ऐसी बात नहीं !! पर कितना जिऊँ ? शरीर का साथ नहीं मिलता  । वो दिन और थे जब कभी अमरूद और आम के पेड़ पर झट से चढ़ जाता था । वो शायद गुलाब काका ही थे जो बाग़ की रखवाली करते थे !  एक बार पकड़ा गया तो कान पकड़कर देविन्दर बाबा के पास ले गए । पूरा गाँव डरता था उनसे । उनकी खड़ाऊँ की आवाज़ सुनते ही बच्चे गली में दुबक जाते थे । फिर मेरी हालत तो ? पैंट गीली हो गई थी मेरी । उन्होंने हँसते हुए हाथ में दो अमरूद और आम पकड़ाकर घर भेज दिया था । सारे बच्चों ने मेरा ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया था । मेरा नाम फिसड्डीलाल पड़ गया था । पूरे  दस दिन तक घर में दुबका रहा था मैं !!

......फिर पढ़ने में मन लगा लिया मैंने । बस बैठकर गणित में उलझा रहता था । सारे अंकों के वर्गफल निकालता रहता या नए समीकरण बनाता रहता । पूरे गाँव में सबसे अच्छी अँग्रेजी थी मेरी । दूर कहीं भी गाँव में शादी ब्याह होता तो मुझे गाड़ी -भाड़ा देकर ले जाते कि अँग्रेजी में कुछ भी बोल देना हमारी इज़्ज़त बढ़ जाएगी । मैंनें भी इंडिया इज माई कंट्री वाला निबंध पूरा रट लिया था । सीना तानकर एक इशारे पर गर्व से खड़ा हो जाता और पूरे जोश से एक साँस में बिना रुके दस मिनट तक बोलता रहता । लोग ख़ूब ख़ुश होकर ताली बजाते । बड़ा विद्वान है , सबकी ज़ुबान पर यही होता बस बाऊजी को यह सब पसंद नहीं था । उन्हीं दिनों पहली बार राजेन्द्र प्रसाद जी का भाषण सुना । मैंने भी सरकारी नौकरी करने का मन बना लिया । बहुत मेहनत की , अख़बार ख़रीदने के लिए साइकिल से रोज़ शहर जाना पड़ता था । मेहनत रंग लाई । सरकारी विभाग में बीडिओ नियुक्त हुआ । सबलोग मुंडा बीडिओ साहब कह कर बुलाते । ब्लौक पर बैठता शान से । यहीं से अफ़सरशाही और पैसे कमाने का दौर शुरू हुआ ।

.....उसके बाद की बातें याद नहीं । शायद ग़लत तरीक़े से कमाया होगा ? तभी उस समय की बातें याद नहीं पर , जल्द ही बहुत नाम और पैसा कमा लिया मैंने । हाँ ! गिनती मुझे याद नही । बस हर चीज़ मेरे पास थी । विवाह बचपन में ही हो गया था पर , पत्नी को पहली बार जब देखा तो जैसे सबकुछ गड़बड़ सा लगा । उस बेचारी को कभी मान सम्मान दिया ही नहीं । इसीलिए शायद पारिवारिक जीवन का समय भी याद नहीं आता पर एक घटना नहीं भूल सकता । मुझे कुछ आदिवासी क्षेत्र में अन्जान लोगों ने परिवार सहित घेर लिया था । उस समय कुछ सूझा ही नहीं जैसे जड़ हो गया था मैं । तभी मना करने के बावजूद पत्नी गाड़ी से बाहर निकली वह ज़रा भी नहीं डरी । सबसे कहने लगी - "  यह मुंडा साहब हैं , हम उनकी पत्नी । हम सब आदिवासी ही है । "  कहने लगी - " हमारे पिताजी का नाम जान लीजिए ।  वह पड़ोस के गाँव में प्रधानाध्यापक हैं । " परिचय जानते ही हमारे पूरे परिवार को इज़्ज़त से साथ में कुछ बंदूक़धारी लोगों ने पूरी सुरक्षा देते हुए घर पहुँचाया । उस दिन हमने पत्नी जी को पूरे मन से पहली बार देखा । इतनी बुरी भी नहीं थी वो ! मधुबाला सरीखी मुस्कान थी उनकी । ख़ैर , हमारा दाम्पत्य उछाल के साथ चल निकला ।

.....आज की दुनिया में तो जैसे ठहराव ही नहीं है । परपोता कानों में बडे भारी- भरकम स्पीकर लगाकर घूमता रहता है । कुछ बोलना चाहूँ तो बस मुस्कुरा भर देता है । हाथ हिलाकर कुछ बीच की दो उँगलियाँ मोड़कर " यो - यो परदादा जी " कहकर चल देता है । पंद्रह साल का है पर , लड़कियाँ मित्र हैं उसकी ।  बाइक चलाता है ,  बाल बडे अजीब से ऊपर से खड़े से रखता है पर , पिछले साल ही देख सका था मैं उसे । वो मेरा पोता अमरीका में हैं ना कई वर्षों से , बहुत कम ही देख सका हूँ । मेरे पोते की बहू आई थी , कैसा रिवाज चल निकला है कपड़ों का  ? पर मुझे अच्छा लगा इनकी दुनिया में मैं भी हूँ । सम्मान देते हैं ये लोग । मुझे हाथ जोड़कर नमस्ते कर रही थी । ख़ूब सारे आशीर्वाद दिए मैंने । जब उसने सहारा देकर उठाया मुझे , तो शर्म से लाल हो गया था मैं । मना करता रहा पर वो नहीं मानी । हमारे समय में तो  मजाल है कि पत्नी का पल्लू सिर से खिसक भी जाए  ! पिताजी के सामने हमारी पत्नी शायद ही कभी आई हो ।  मैं भी औरों की तरह तब उसे मालकिन कह कर बुलाता था । सो उसका नाम क्या था याद ही नहीं आता !

पर यहाँ तो बहू ही सारा घर बाहर सब संभालती है  । पिछले महीने बेटा नहीं था तो बहू ही लेकर गई थी बैंक । साथ में रामखेलावन भी था पर , बहू ही मेरे साथ रही । बैंक वाले भी सब बहुत इज़्ज़त करते हैं मेरी । मैनेजर कुर्सी छोड़कर मुझे प्रणाम करने आता है । बहू शान से सबको बताती है कि कितना ध्यान रखते हैं सब मेरा  । उसकी आँखों में चमक आ जाती है जब , सब तारीफ़ करते हैं कि वाक़ई में एक बुज़ुर्ग को संभालना बहुत बड़ी बात है । मेरे बाऊजी के समय में तो गाँव के सब लोग सेवा करने को लालायित रहते थे । मानों होड़ लगी रहती थी बारी बारी से सेवा करने की  पर , आजकल तो पैसा ही सेवा करवाता है । सोचता हूँ पेँशन ना मिलती तो क्या  ? पर नहीं यह सोचना भी नहीं  ! बेटे को पैसे की क्या कमी है ? पर अच्छा हुई पत्नी पहले चली गई ।  वो मेरे मित्र की पत्नी जो बयासी वर्ष की थी ।  बाथरूम में गिर गई थी । कूल्हे की हड्डी टूट गई बेचारी की ।  एक बार बिस्तर पर पड़ी तो फिर उठ नहीं पाई । सारा गंदा मैला बेचारे बच्चों को ही करना पड़ा । सुना है वह होश खो बैठी थी । कितने दिन सेवा करते बच्चे ? उसके मरने की दुआ करने लगे ।  मैं उस समय चल फिर लेता था । बस यूँ ही देखने गया तो जैसे नज़र ही नहीं उठी मेरी । एक फटी पुरानी चादर में आधा शरीर ढका हुआ था । बार बार कपड़े ख़राब हो जाने के डर से पूरे कपड़े भी नहीं पहनाए थे । खाने की गरज में हाथों में गंदगी लेकर खा रही थी । उफ !! नहीं देख सकी आँखें । बस नहीं चाहता कि मेरी भी यही स्थिति आए !!

क्या ग़लत है कि समय रहते ही चले जाना चाहता हूँ दुनिया से ? बस मेरी बात मान लीजिए । मुझे इस जीवन से मुक्त कर दीजिए ।
क्या मेरी इच्छा मायने नहीं रखती ?  पूरा जीवन अपने मन के अनुसार जिया मैंने । अब बस अंत भी अपनी मर्ज़ी से चाहता हूँ । कौन तय करेगा कि मैं कितना जिऊँ ?  क्या आप लोग ?  जिन्हें मेरे होने या ना होने से कोई फ़र्क़ नहीं पडता ? या मेरा परिवार जिसको जीवन मैंनें ख़ुद दिया ?  और इंतज़ार नहीं होता । समय की राह पर से करवटें लेकर अब इक अनजानी दुनिया का सफ़र करना चाहता हूँ बस , उस दुनिया का सफ़र मंगलमय हो यह कामना करें ....!! पर यह जीवन अब और नहीं ...!! अब और नहीं ... !! "

पूजा रानी सिंह कहानी

कहानी " माँ के हाथ का खाना "

कहानी - " माँ के हाथ का खाना "
" नहीं माँ , पनीर की सब्ज़ी नहीं खाना मुझे । आज पिज़्ज़ा और्डर कर देते हैं । वो बररितो भी चलेगा , इटालियन में कुछ मँगवा लो ना । पर , प्लीज़ ये काजू पुलाव , पनीर की सब्ज़ी और खीरे का रायता मत परोस देना । "ख़ूब नाक मुँह सिकोड़ रही थी मेरी बिटिया खाने को देखकर । कितनी मेहनत और लगन से यह सब उसके जन्मदिन पर बनाया था कि प्रेम से खाएगी । पर उसका यह रूप देखकर तो जैसे अपने आप से ही घृणा होने लगी । हम कितनी ख़ुशी से यह सब खाते थे , और आज के ज़माने में तो जैसे हमारे साथ - साथ घर का बना हिन्दुस्तानी खाना भी आउटडेटेड हो गया है । भला हो इस इंटरनेट युग का , सबकुछ आईपैड पर फ़ोटो में देखकर और्डर कर लेते हैं । बिल तो माँ बाप ही भरेंगे ना ! ज़रूरत से ज़्यादा ही ग्लोबलाईजेशन हो गया है । माँ बनी मौम , भाई बना ब्रो , बहन बनी सिस , पापा बने डैड और घर का खाना बैड ! फिर मन मारकर सारा बनाया खाना समेटा और अपनी मेड आरती को पैक करके दें दिया कि चलो उसके बच्चे और परिवार खा लेगा । फिर वही बिटिया के मनपसंद जिलेटीनो , बुर्रित्तो और वेज क्राउन पिज़्ज़ा का और्डर दें दिया । ख़ुद की दिल दुखा तो दुखा पर बिटिया को दुखी नहीं देख सकती थी सो सबने मुस्कुराकर वही खाना खाया ।पतिदेव शायद मेरे दुखी मन को समझ चुके थे सो आधी रात को बोले - " शालिनी , तुम्हारे बनाए पनीर और काजू पुलाव की बडी ख़ुशबू आ रही है , रहा नहीं जा रहा । एक थाली में ले आओ ना ! साथ मिलकर खाते हैं। " मुझे कुछ - कुछ रुआँसी सी हँसी आई कि देखो मुझे ख़ुश करने के लिए आज ज़बरदस्ती खाना खाने को तैयार हैं जबकि लंच में जब यही सब पैक करती हूँ , तो कहते हैं कि - " क्या गँवारो का खाना बनाया है ? कुछ नया ट्राई किया करो ना हर रोज़ । औनलाइन देखकर बेक क्यूँ नहीं कर लेती ? सबसे महँगा माइक्रोवेव ख़रीदा है तुम्हारे जन्मदिन पर ! रोज़ नया खाना बनाया करो ना । "ख़ैर ! मैं वैसे ही लेटे - लेटे कह उठी - " सारा खाना तो मैंने आरती को दे दिया । सुबह बासी खाना तो कोई खाता ही नहीं है । सो क्या करती मैं ? " पति ने लंबी साँस ली कि जैसे बच गए हों ।सुबह जल्दी उठकर बच्चों को उठाने ही जा रही थी कि तभी दरवाज़े की डोरबेल बजी । " इतनी सुबह कौन आ गया " बड़बड़ाते हुए मैंने बालों का जूड़ा बनाया और दुपट्टा जल्दी से कंधे पर डालकर दरवाज़ा खोला ।सामने आरती खड़ी थी । उसने हाथों में एक बड़ा सा स्टील का डिब्बा पकड़ रखा था । अपना टूटी फूटी हिन्दी में बोलने लगी वो - " मैडम मैं आपके और साब और बच्चों के लिए स्वीट बनाया । आप खाएँगे ना ? " थोड़े संकोच के साथ उसने डिब्बा खोला । गरम- गरम भाप निकल रही थी , बड़ी ही अच्छी खाने की ख़ुशबू आ रही थी । कुछ पतले पतले पराँठों की शेप में मीठा भरकर बनाया था उसने । मेरा सोमवार का व्रत था आज पर मैं उसे मना नहीं कर पाई ।मैंने आरती से कहा - " रख दो टेबल पर । आज सबको यही नाश्ते में परोस दूँगी । मेरा व्रत है सो मैं नहीं खा पाऊँगी पर बहुत धन्यवाद कि तुम बनाकर लाई । " आरती की आँखों में चमक थी और होंठों पर मुस्कुराहट । वो फिर से टूटी - फूटी हिन्दी में कहने लगी - " मैडम आपका खाना बहुत ही अच्छी । मेरा बच्चा लोग , आदमी और मेरी अक्का ( सास ) सबको बहुत अच्छी लगी । ये डिश मेरा अक्का बनाया आपके लिए । "क्या कहूँ उस वक़्त आँखें नम हो आईं मेरी । आँसू छुपाते हुए उसको धन्यवाद कहकर दरवाज़ा बंद किया और चुपचाप बिस्तर पर आकर सो गई । मन ही नहीं किया कि सबको उठाऊँ और नाश्ता बनाऊँ ।लेटे - लेटे मन तो उदास था ही सो पता नहीं कब सोचते - सोचते आँख लग गई मेरी । काफ़ी देर के बाद बड़ी मीठी सी सुगंध आई और बच्चों का शोर सुना तो आँख खुल गई । पति और बच्चे झगड़ रहे थे । बिटिया कह रही थी - " पापा ...आप ही सारा खा जाएँगे या मुझे भी खाने देंगे । पापा ...मुझे एक मीठा पराँठा और दीजिए ना । " उधर बेटा कह रहा था - " पापा , मम्मी कितना यम्मी पराँठा बनाती है । मैं सारा ख़त्म कर दूँगा ।" पतिदेव भी कह रहे थे -" तुम्हारी माँ तो सो रही है । लगता है हमें सरप्राइज़ देने के लिए ये उसने रात में बनाया होगा । बहुत मेहनत करती है वो । एक तुम लोग हो कल रात का सारा खाना बर्बाद करवा दिया तुमने । "इधर से मैं निकली - " ये मैंने नहीं तुम लोगों की आरती आँटी ने बनाया है । कल सारा खाना मैंने उसे दे दिया था । उसे और उसके घरवालों को बहुत पसंद आया । सो वो आज हम सबके लिए ये मीठा डिश बनाकर लाई थी । "" मम्मी फिर मेड आँटी को बोलते है घर पर आकर रोज़ खाना बनाए । आपका एक ही खाना खाकर हम बोर हो चुके है ।" बिटिया का मुँह पापा ने बंद किया । मैं फिर से तुनककर अपने कमरे में आकर सो गई । लिविंग रूम से बच्चों के खिलखिलाने और पतिदेव के हँसने की आवाज़ आ रही थी । समझ गई मैं कोई फ़ायदा नहीं मेहनत करने से । अब होटल का ही खाओ रोज़ , जब बोर हो जाओ और मेरे खाने की याद आए तभी बनाऊँगी खाना घर मे मैं । चुपचाप उठी और सारे होटलों और रेस्टोरेंट के नंबर मोबाइल में सेव करने लगी ।पूजा रानी सिंह

Monday, 7 April 2014

" पलाश के फूल "

    " पलाश के फूल " 


डलिया में चुन फूल पलाश के

बगिया से चली जाऊँगी ,

रोकेगा कितना भी माली

पगडंडी में खो जाऊँगी ।


राह न तकना मेरी पुष्पों

मैं तेरी वो बहार नहीं,

जाना बिखर सबके आँचल में 

मुझसे करना प्यार नहीं ।

जहाँ घनेरी रात मिलेगी

पत्थर पर सो जाऊँगी । 

डलियाँ में चुन फूल पलाश के

बगिया से चली जाऊँगी ,

रोकेगा कितना भी माली

पगडंडी में खो जाऊँगी ।


तुम तो अपनी सोच रहे हो 

मेरी विवशता को पहचानो ,

मिलेंगी तुमसे लाखों बहारें

मेरा अकेलापन जानो ,

जब कोई विरह की ज्वाला में होगा

ठंडी बयार बन गाऊँगी ।

डलियाँ में चुन फूल पलाश के

बगिया से चली जाऊँगी ,

रोकेगा कितना भी माली

पगडंडी में खो जाऊँगी ।


रहते हैं सब साथ में मेरे

पर मेरा कोई यार नहीं ,

प्यारी हूँ पूरी बगिया को

मुझको किसी से प्यार नहीं,

दु:ख जितने राहों में मिलेंगे 

हर बार मैं चुनने आऊँगी ।

डलियाँ में चुन फूल पलाश के

बगिया से चली जाऊँगी ,

रोकेगा कितना भी माली

पगडंडी में खो जाऊँगी ।



पूजा रानी सिंह